दीपावली के अवसर पर गांव के निवासी विशेषतः अहीर, ग्वाले लोग इस नृत्य में भाग लेते हैं। ’दिवारी’ नामक लोकगीत के बाद नाचे जाने के कारण इसे ’दिवारी नृत्य’ कहा जाता है। दिवारी लोकगीत में एक ही पद रहता है, और वह ढोलक, नगड़िया पर गाया जाता है। गाने वालों के दल के साथ प्रमुख रूप से एक नाचने वाला भी रहता है, जो रंग-बिरंगे धागों की जाली से बनी, घुटनों तक लटकती हुई, पोशाक पहने रहता है।
सैरा नृत्य(बुन्देली लोकनृत्य)
इस पोशाक में अनेक फूँदने लगे रहते हैं, जो नृत्य के समय चारों ओर घूमते हैं। इस प्रमुख नर्तक के साथ अन्य छोटे-बड़े और भी नर्तक बारी-बारी से नृत्य में शामिल होते रहते हैं। जिस प्रकार प्रमुख नर्तक अपने दोनों हाथों में मोर पंख के मूठ लिये होता है, उसी प्रकार अन्य नर्तक भी लिये रहते हैं। दिवारी एक निराला राग है। इसमें बाजे गाने के समय नहीं बजाये जाते, अपितु गा चुकने के बाद बजाये जाते हैं।
दिवारी गीत निम्नवत् हैं-
1. ’वृन्दावन बसयौ तजौ, अर होन लगी अनरीत।
तनक दही के कारने, फिर बैंया गहत अहीर।
2. ’ऊँची गुबारे बाबा नंद की, चढ़ देखें जशोदा माय।
आज बरेदी को भओ, मोरी भर दुपरै लौटी गाय रे।’
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